“अमेरिका
और चीन के बिच व्यापार युद्ध के कारण तथा परिणाम”
जैसा की हम जानते है किसी भी परिस्थिति के युद्ध की समस्या
तब उत्पन्न होती है जब किए दो या दो से अधिक विचारधराए आपसी टकराव की स्थिति के आकर
अपने विचार, समर्थ, तह शासन को वधावा देना चाहता हो. अभी के समकालीन में युध्ध
हथियारो से नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक, राजनितिक, तथा वैज्ञानिक विचारो से होती
है. अमेरिका तथा चीन एक उसका उदहारण है .
अमेरिका तथा चीन के बिच व्यापर या आर्थिक युध्ढ अभी पुरे
विश्व में चर्चा में है, और होना भी चाहिए क्योकि पिचले कई दसक से आ रही अमेरिका
और रुश के सामने एक तीसरी सकती आ खरी है जिसका नाम है चीन. अब ये हम ये जानते है की
दोनों देशो में आख़िरकार व्यापार युद्ध उत्पन्न हुआ कैसे ?
हम जानते है की किसी भी देश को विदेशी व्यापार में
हिस्सेदारी लेने केलिए अर्थव्यवथा के मुलभुत स्तम्भ, उत्पादन उपभोग तथा विनिमयम
क्षेत्र, में अपनी हिस्सेदारी बढ़नी पारति है. तो इस अधर पर हम कह सकते है कि अमेरिका
और चीन के विच व्यापर युद्ध ही नही वरन ये आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, तथा
वैज्ञानिक किरियाओ का युध्ह है, क्योकि विदेशी व्यापर से न केवल किसी देश का आर्थिक
क्षेत्र का फैलाव होता है साथ साथ वैश्विक स्तर पर राजनितिक दबदबा वि बनता है,
इसलिए अमेरिका, जो इसका स्वाद पहले से चखता आ रहा है, और चीन जो यह चाहता है इसी
कारन इन दोनों देसों के विच यह घर्षण हो रही है .
अब रही बात अमेरिका
तथा चीन की व्यप्पर तथा आर्थिक स्थिति की तो दोनो बिकुल अलग नजर आरही है. जैसा की
हम जानते है अमेरिका ,जहा विश्व की सबसे बरी पूंजीवादी अर्थ वयवस्था है, तो दूसरी
तरफ चीन, जो निकट कुछ वर्षो में अप्रत्याशित वृद्धि कर विश्व की सबसे बरी
कम्नुस्टवादी अर्थव्यवस्था बन चुकी है. इस वाक्य से यह इस घर्षण की कारन का पता लग
जाता है. अमेरिका शुरू से ही पूंजीवादी अर्थवावस्था को बधाबा देता आ रहा है और इसी
के माध्यम से अपना लाभ भी अर्जित करता रहा है, और अगर वह लाभ की स्थिति में नहीं
रहता है तो लाभ कमाने के लिए राजनितिक हस्तक्षेप भी करता है जिसका उद्धरण दो नो
विशव् युढ है, अब रही बात चीन की तो वह “संयुक्त रास्त्र संघ” बनाने के बाद से
अपने शकति के प्रसार में लगा है जिसमे काफी हद तक सफल भी रहा है. वह भी चाहत है की
हम विश्व में अधिकतम लाभ अर्जित करे. इसी कारन से वह अपने देश के संसाधनों का
पूर्ण उपयोग करके एक अर्थशक्ति के रूप में विश्व में अपना छप छोरे. इसलिए वह पिछले
तिन दशक से, जब से उसकी इकनोमिक रिफार्म(1978) हुई है तब से वह उत्पादन, व्यापार,
उपभोग तीनो क्षेत्र में बढ़ता जा रहा है जिसके कर्ण वैव्श्विक स्तर पर अमेरिका के
शक्ति में उदासीनता आ रही है.जिसके परिनामस्वरुप अमेरिका को भी आपने नीतियों के
बारे में सोचने पर मज्बोर कर रही है. यहाँ राजनेतिक विचार भी एक बहुत बार रोले
निभा रहा है, जैसा की हम जानते है अमेरिका में लोकतंत्र व्यवस्था है जहा कोई भी कार्य
में सहमती तथा असहमति होती है उदाहरन केलिए ट्रंप सरकार में युओवाओ का नाराजगी में
बिरोध प्रदर्शन को देख सकते है तो दूसरी तरफ चीन जो कम्यनुस्त की शासन व्यवस्था को मानती है जहा सरकार के
नीतियों का विरोध कोई जनता नहीं करती जिसका उदाहरन आप देख सकते है की “सी जिन पिन”
को जीवन भर रासट्रंपति बनाने पर भी कोई बिरोध नहीं हुआ, कोयोकी चीन की सर्कार का
वह निति थी जिसका विरोध रस्त्रद्रोह होता है. इसी कारन है की चीन को अमेरिका के
अपेक्षा राजनेतिक लाभ है. अब एक बरा सबल यह है की क्या चीन ,अमेरिका को व्यापार घर्षण में जीत हहिल के सकता है?
जैसा मै मानता हु, अमेरिका बड़े बड़े पूंजीपतियों तथा
धन्बकुरो का गढ़ रहा है, जहाँ की निवेश क्षमता चीन बहुत ज्यादा है पर उसके सामने
सबसे बार सबल यह है की वह किस वास्तु का उत्पादन करे जो अभी के समकालीन में उसे
लाभ की प्राप्त कर दे. इस सबाल के जबाब में चीन उससे आगे बढ़ चूका है और बढ़ता हि जअ
रहा है क्योकि वह विश्व की अर्थव्यवस्ता के नव्ज को पहचानता है इसलिए नए नइ
अविशाकारो तथा नवपरिवर्तन कर वह वैसी वास्तु का उत्पादन कर रहा है जो कम कीमतों पर
लोगो तक पहुचाया जा सके क्यौकी उसे पता है कि विश्व की 70% देश विकाशसील या अर्धविकसित
है जहा की लोगो की करय क्षमता कम होती है जिससे लोग ज्यादा कीमतों के वास्तु को
पसंद नै करते, जिसका उदाहरण भारत है जहाँ चीन के वस्तुयों पर इतने प्रतिवंध के
वाबजूद लोग उसी को ज्यादा पसंद करते है, इस क्षेत्र में भी चीन, अमेरिका पर भरी पर
रहा है. जो चीन के जीत का एक महत्पूर्ण करन बन सकता है..
अब सबसे बार सबाल यह है कि अमेरिका के पास धन है पर वह
निवेश क्यों नहीं करता?
तो इसका जबाब बार सिंपल है क्योकिअमेरिका को पता है वह
पूंजी प्रेरित वास्तु ही बना सकती है क्योकि उसके पास उत्पादन का सबसे बार साधन
पूंजी ही ही जो काफी कीमती होती है जो वैश्विक स्तर पर मांग कम की जा रही है और
दूसरी तरफ निवेश हमेसा अधिउत्पदन (over production) का शिकार हो
जाती है क्योंकी अमेरिका में पुन्जिबदी अर्थवाव्स्था है जहा उत्पादन पर पूंजीपतियों
का अधिकार होता है, जिसका लाभ ज्यादा होता है उस वास्तु का उत्पादन सभी पूंजीपति करते है जो अधिउतपदन का
कारन बन जाता है जो आर्थिक मंदी का जन्म देती है जिसका उदाहरन,1929, 1970-80 के दसक में आई आर्थिक मंदी या 2008 की आर्थिक मंदी जिसके कारन उसको
अप्रत्याशित क्षति का सामना करना परता है, इसी कारन वहां के पूंजीपति चाह के भी
ज्यादा निवेश नहीं करते...
उपयुक्त बातो से यह निषकर्ष निकलता है कि चीन और
अमेरिका के वयापार युद्ध न केवल आर्थिक है वरण राजनैतिक भी है जो वैश्विक सस्तर पर
अपना दबदबा बनाने के लिए हो रही है जिसमे चीन ,अमेरिका से आगे बढाती दिख रही है, अगर
अमेरिका निकट कुछ वर्षो में अपनी नीतियों में बदलव नहीं लती तो इस बात को नाकारा नहीं जा सकता की
अमेरिका को भी चीन इस क्षेत्र में मात देकर जीत शुनिश्चित करेगा. जो न केवल
अमेरिका वरण भारत समेत विश्व के लिए चिंत जनक है क्योंकि चीन लोकतान्त्रिक व्यवस्था
को नहीं मानता और वह वेसे देसों का ज्यादा साथ सेता है जो लोकतान्त्रिक वयवस्था को
नहीं मानता जैसे –उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, ताईवान आदि. इसलिए यह बात अमेरिका ही
नहीं बल्कि पुरे देश केलिए चाइना जनक है जिसका परिणाम नकारात्मक भी हो सकता
है.........
संजीत कुमार
रिसर्च स्कॉलर (अर्थाशासत्र)
धन्यवाद...